Friday, January 3, 2014

ज़रूरत है तो बस इक इंसान की

ना मज़हब की ना भगवान की
ज़रूरत है तो बस इक इंसान की.
गूँज रही चीखों और चीत्कारों को जो सुन पाये
टूट रहे सपनो के टुकड़ो को जो चुन पाये
अंधियारी राहों में खोयी आशाएं जो बुन पाये
ऐसे दयावान की.
ना मज़हब की ना भगवान की
ज़रूरत है तो बस इक इंसान की.
कदम-कदम पे सरहद की दीवारों को जो फोड़ सकेजाति,
 धर्म, समाज की दरारो को जो जोड़ सके
जंग लगे दिल के दरवाजों के ताले जो तोड़ सके
ऐसे ऊर्जावान की.
ना मज़हब की ना भगवान की
ज़रूरत है तो बस इक इंसान की.

No comments:

Post a Comment